Friday, May 27, 2016

तुलसी की उत्पति तुलसी से जुड़ी पौराणिक कथाए और, तुलसी के गुण-Benifits Of Tulsi Plant


हमारी धर्म संस्कृति में तुलसी के पौधे को सभी पौधों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। तुलसी का पौधा अति पवित्र और स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक बताया गया है। तुलसी का पौधा घर के आँगन में उगाया जाता है। और नित्य उसकी पूजा की जाती है। ऐसी धार्मिक मान्यता है कीजिस घर के आँगन में तुलसी का पौधा रोपित किया गया होउस घर में सुखशांतिसमृद्धिधनदौलतऐश्वर्यशुद्धता और स्वस्थ आरोग्य वास रहेता है। धार्मिक ग्रंथों में तुलसी के तीन प्रकार कहे गए हैंराम तुलसीकृष्ण तुलसीऔर सफ़ेद तुलसी। कृष्ण तुलसी में छोटे छोटे फूलों वाली मंजरियाँ उगती है। और येही कृष्ण तुलसी की पहचान होती है।





ब्रह्मा जी ने तुलसी को विष्णु को सौपा था। विष्णु भगवान की पूजा में अगर तुलसी के पत्तों का ईस्त्माल ना किया जाए तो विष्णु पूजा अधूरी मनी जाती है। हिन्दू धर्म में देव पुजाहवनयग्नऔर आरती तथा भोग-प्रसाद में तुलसी के पत्ते का उपयोग किया जाता है। तुलसी विष्णु जी को अति प्रिय हैं। तुलसी को लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है। 

तुलसी के पौधे कई प्रकार के होते हैं। तुलसी का पौधा सामान्य तह एक से तीन फीट तक ऊंचा होता है। तुलसी का पौधा झाड़ीनुमा स्वरूप में उगता है। तुलसी के पौधे की पत्तियाँ एक से दो इंच लंबी पायी जाती हैं। तुलसी की पत्तियों का आकार अंडाकार होता है। तुलसी के पत्तों का स्वाद तीखा और थोड़ा कड़वा होता है। ज़्यादातर तुलसी के पौधे वर्षाऋतु में उगते हैं। और शीतकाल में खूब खिलते हैं।

तुलसी के पौधे की आयु करीब दो से तीन वर्ष की होती है। इतने समय के बाद तुलसी की डालियाँ सुख जाने लगती हैंतथा तुलसी के पर्ण आकार में सिकुड़े और छोटे होने लगते हैं। तुलसी की सभी प्रजातियों में ओसिमम सेक्टम तुलसी को पवित्र तुलसी माना जाता हैं। हमारे देश के प्रमुख आयुर्वेद ग्रंथ चरक संहिता में भी तुलसी के उपयोग से होने वालेअनगिनत लाभ बताए गए हैं।

    

धर्म संस्कृति अनुसार तुलसी का इतिहास
पूर्व काल में देवताओं और दानवों के बिछ में जब समुद्र मंथन हुआ थाउस समय प्राप्त हुए अमृत के छलक जाने सेकुछ अमृत की बूंदें धरती पर गिरि थीं। और उसी अमृत की दिव्य बूंदों से तुलसी के पौधे की उत्पति हुई थी। और इसी वजह से तुलसी के पौधे में इतने गुण समाविष्ट हैंऐसा माना जाता है। अमृत से जन्मी और उत्पन हुई तुलसी पाप-नाशक और मौक्ष दायक बताई गयी है। शालीग्राम और तुलसी का विवाहभगवान विष्णु और महादेवी महालक्ष्मी के विवाह का प्रतीक माना जाता है।       

तुलसी के पौधे के विभिन्न प्रकार (प्रजातियाँ)  
·         वनतुलसी / राम तुलसी / अरण्य तुलसी
·         कर्पूर तुलसी
·         काली तुलसी
·         मरुआ तुलसी
·         ओसिमम विरडी तुलसी
·         ओसिमम सेक्टम तुलसी (पवित्र तुलसी)
·         ओसिमम वेसिलिकम मिनिमम तुलसी 


तुलसी के पौधे में और बीजों में पाये जाने वाले रसायन
·         ग्लायकोसाइड
·         ट्रैनिन
·         सैवोनिन
·         एल्केलाइड्स
·         एक प्रकार का पीला उड़नशील तेल (मात्रा 0.1 से 0.3 प्रतिशत)
·         विटामिन सी
·         कैरिटिन
·         श्लेष्मक प्रचुर (तुलसी के बीजों में)
·         हरे पीले रंग का तेल(तेल के घटक लिनोलकसीटोस्टेरोलओलिकस्टियरिक)

आयुर्वेद की दृष्टि से तुलसी के पौधे का महत्व
आयुर्वेद में तुलसी के पौधे को अनेक रोगों का एक इलाज बताया गया है। खांसीसरदीज़ुकामगले के रोगश्वास से जुड़ी बीमारियादांतों की तकलीफऔर मुह की दुर्गंध की तकलीफ में तुलसी के पत्तों का सेवन या तुलसी का काढ़ा पीने से फौरन राहत मिल जाती है। तुलसी से वात संबन्धित बीमारियाँ दूर हो जाती हैं। तुलसी के पत्तों का सेवन करने से पाचन शक्ति बढ़ जाती है। तुलसी के पत्तों का नित्य सेवन करने वाले व्यक्ति को कभी दिल की बीमारी नहीं होती है। और तुलसी के पत्तों का काढ़ा पीने वाले व्यक्ति को कभी पित्त वायु और दूषित वायु की बीमारी नहीं होती है।  

मूत्र मार्ग संबन्धित बीमारी में तुलसी के सेवन से राहत मिल जाती है। उल्टीकृमिहिंचकी और कोढ़ जैसी विकट बीमारी में भी तुलसी के सेवन से राहत हो जाती है। शरीर में किसी भी प्रकार के विकार की समस्या से निजात पाने के लिए तुलसी का सेवन करना हितकारी साबित होता है। आँखों से जुड़ी बीमारियों में भी तुलसी लाभदायी होती है।   

और अब तो यह भी साबित हो चुका है की परमाणु विकिरण की चपेट में आए लोगों का इलाज भीतुलसी से संभव है। तुलसी में ऑक्सीकरण गुण पाया जाता हैजो विकिरण से नुकसान ग्रस्त हुई मानव शरीर की कोशिकाओं को दुरुस्त कर देता है। यह तर्क वैज्ञानिक प्रमाणित है।


राक्षस जालंधर और वृंदा (तुलसी) की कहानी
ऐसा कहा जाता है की पूर्व काल में जालंधर नाम का एक अति बलशाली राक्षस हुआ करता था। एक समय शिवजी ने अपने तेज को समुद्र में फैंक दिया था और उसी तेज से यह प्रबल राक्षस जालंधर उत्पन्न हुआ था।जालंधर की पत्नी वृंदा (तुलसी) एक पतिव्रता नारी थीं। और अपने पति से बहुत प्रेम करती थीं। जालंधर ने देवताओं को काफी परेशान कर रखा था। जालंधर राजधानी का यह राक्षस देवों से भी नहीं डरता था। अपनी पत्नी के सतीत्व और धर्म परायणता के कारण जालंधर अजय था।

एक बार जालंधर नें अपनी शक्ति के मध में अंध हो करमाता लक्ष्मी को पाने की कामना की थी और युद्ध किया था। परंतु सागर से जन्मे होने के कारण लक्ष्मीजी ने जालंधर को भाई के रूप में स्वीकार किया। एक बार जालंधर शिवजी की पत्नी पार्वती के पास शिवजी का रूप धारण कर के उनके समीप गया थातब पार्वती जी ने जालंधर को अपने तपोबल से पहचान लिया था। और वह अदृश्य हो गईं और वहाँ से चली गईं थी।

कैलाश पर्वत पर शिवजी और राक्षस जालंधर के बीछ भीषण युद्ध आरंभ हो जाता है। परंतु अपनी पत्नी बृंदा(तुलसी) के सतीत्व के कवच से सुरक्षति राक्षस जालंधर हराया जाना नामुमकिन साबित होता है। जालंधर का अंत तभी संभव हो सकता थाजब जालंधर से उनकी पत्नी वृंदा(तुलसी) का सतीत्व का कवच हटे। 

जालंधर राक्षस के अंत के लिए लक्ष्मीजीपार्वती जीऔर समस्त देवतागण मिल करपरम शक्तिमान विष्णु भगवान से सहायता मांगने जाते हैं। और विष्णु भगवानदुराचारी राक्षस जालंधर का अंत करने के लिए उनकी पत्नी वृंदा(तुलसी) के सतीत्व को खंडित करने का निश्चय कर लेते हैं। ताकि जालंधर राक्षस का रक्षा कवच टूट सकेऔर उसका संहार किया जा सके।

ऋषि वेश में विष्णु भगवान उस जगह जाते हैंजहां वृंदा (तुलसी) भ्रमण कर रहीं होतीं हैं। अपने साथ दो मायावी राक्षस को भगवाम विष्णु साथ ले जाते हैं। उन रक्षाशों से वृंदा (तुलसी) भयभीत हो जातीं हैं। तभी साधू वेश में छुपे विष्णु उन रक्षाशों को वहीं भस्म कर देते हैं।

वृंदा तपस्वी साधू से अपने पति और शिवजी के बीछ में चल रहे युद्ध के बारे में पूछती हैं। तभी साधू वेश में छुपे विष्णु वहाँ दो वानर प्रगट कर देते हैं। जिन मे से एक वानर के हाथ में बृंदा(तुलसी) के पती जालंधर का कटा सिर और दूसरे वानर के हाथ में धड़ होता है। अपने पती की यह दशा देख बृंदा मूर्छित हो जाती है। और जब वह भान में आती हैं तो साधू वेश में छुपे विष्णु से अपने पती को जीवित करने की याचना करने लगतीं है।

भगवान विष्णु उस कटे शिर और धड़ की जौड देते हैं। और उसमे खुद खुद प्रवेश कर जाते हैं। अपने पती को पुनः जीवित देख वृंदा (तुलसी) उसके साथ पतिव्रता व्यवहार करने लगती हैं। और इसी वजह से उसका सतीत्व भंग हो जाता है। वृंदा का सतीत्व भंग होते ही कैलाश पर्वत पर युद्ध कर रहे जालंधर से सतीत्व का कवच हट जाता हैऔर जालंधर युद्ध हार जाता है। और इस प्रकार विष्णु भगवान की सहायता से शिवजी के द्वारा अजय राक्षस जालंधर का अंत हो जाता है।

धोके से अपना सतीत्व भंग करने परऔर अपने पती के वियोग से आहत और क्रुद्ध हो कर वृंदा (तुलसी) ने विष्णु को शाप शाप देतीं है की अब तुम पत्थर के बन जाओगे। और तुम्हें एक जन्म ऐसा लेना पड़ेगा जिसमे तुम्हें पत्नी वियोग सहना पड़ेगा। (यह शाप रामा अवतार में सच हुआ जब रावणदेवी सीता को हर कर लंका ले जाता है।)।

वृंदा उसी वक्त पती के वियोग में सती हो जातीं हैऔर उसी की राख़ से तुलसी के पौधे का जन्म हुआ ऐसा कहा जाता है।
            

तुलसी माँ की आरती

जय जय तुलसी माता      सब जग की सुख दाता,  वर दाता       जय जय तुलसी माता ।।

सब योगों के ऊपर,     सब रोगों के ऊपर  रुज से रक्षा करके भव त्राता      जय जय तुलसी माता।।

बटु पुत्री हे श्यामा,    सुर बल्ली हे ग्राम्या  विष्णु प्रिये जो तुमको सेवेसो नर तर जाता     जय जय तुलसी माता ।।

हरि के शीश विराजत,    त्रिभुवन से हो वन्दित  पतित जनो की तारिणी विख्याता       जय जय तुलसी माता ।।

लेकर जन्म विजन में,   आई दिव्य भवन में  मानवलोक तुम्ही से सुख संपति पाता     जय जय तुलसी माता ।।

हरि को तुम अति प्यारी,   श्यामवरण तुम्हारी  प्रेम अजब हैं उनका तुमसे कैसा नाता      जय जय तुलसी माता ।।
                                   
विशेष

तुलसी का पौधा अति गुणकारी और लाभदायी है। पौराणिक मान्यता और वैज्ञानिक तारणों को आधार स्वरूप मानें तो तुलसी धरती पर अमृत समान वृक्ष हैं। हर एक व्यक्ति को अपने आँगन में इस दिव्य और पवित्र लाभदायी वृक्ष का रोपण करना चाहिए।    "जय माँ तुलसी"


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