पूर्व
काल में हिरण्यकश्यप नाम का बलशाली राक्षश राजा हुआ करता था। उसे परमपिता
ब्रह्माजी से वरदान मिला हुआ था। की उसे कोई मानव, देवता, पशु या दैत्य मार नहीं सकता था। उसका संहार ना तो दिवस में संभव था, ना ही रात्री में, ना ही घर के बाहर उसे मारा जा
सकता था ना ही घर के अंदर। ना ही उसका वध पानी में संभव था और ना ही उसे हवा में
मारा जा सकता था। इसी विकट वरदान के मध में हिरण्यकश्यप स्वयं को ईश्वर मानने लगा
था। और सब से खुद की पूजा करवाने की मांग करता था। और जो कोई व्यक्ति दूसरे किसी
देव या भगवान की पुजा करता पाया जाता तो हिरण्यकश्यप उसे मृत्यु दंड दे देता था।
एक
कहावत है की, जिसे कोई नहीं पहुच पाता है उसे उसका अपना पेट
पहुंचता है। हिरण्यकश्यप के साथ भी वही हुआ। उसका अपना बेटा ही एक परम विष्णु भक्त
था। यह बालक अत्यंत मज़बूत मनोबल वाला था। उसे श्रीष्टि की किसी ताकत से भय नहीं
था। खुद का पुत्र विष्णु भक्त है यह जान लेने के उपरांत हिरण्यकश्यप नें उसे खूब
डराया धमकाया और उसे विष्णु भक्ति त्याग करने को तरह तरह की यातना दे कर मजबूर
किया। पहाड़ से फिकवा देना, जंगल में अकेला छोड़ देना, पानी में डुबो देना, तो कभी विषपान करा देना। इन सब
प्रयासो के उपरांत विष्णु भक्त प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ।
अंत
में हिरण्यकश्यप नें होलिका की सहायता मांगी। होलिका हिरण्यकश्यप की बहन थी, जिसे वरदान प्राप्त था की उसे अग्नि जला नहीं सकती है। होलिका नन्हें
प्रह्लाद को गोद ले कर अग्नि के बीछ जा बैठी, ताकि प्रह्लाद
जल कर भस्म हो जाए और खुद वरदान के प्रताप से बच जाये। होलिका को यह ज्ञात नहीं
रहा की उसका वरदान अग्नि में प्रवेश करने पर काम आता है। इस लिए वह अग्नि से बाहर
नहीं आ पायी और जल कर भस्म हुई। प्रह्लाद नारायण का नाम जपते हुए बैठा रहा। उसे
कोई क्षति नहीं पहुंची। विष्णु कृपा से प्रह्लाद जीवित अग्नि से बाहर आए। और इस
तरह प्रति वर्ष होलिका दहन विधि मनाई जाने लगी।
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