एक समय
की बात है, एक ऋषि के आश्रम मे सारे विद्यार्थी सिक्षा ग्रहण कर
रहे थे, उसी समय उन मे से एक विद्यार्थी चिल्लाता हुआ आश्रम
सिर पे ले लेता है, और वो ऊंचे स्वरो मे अपनी नाराजगी जाहीर
कर के सब से जगड्ने लगता है, और पूरा माहोल ऊग्र कर देता है,
बाकी सब सहपाठी ओ के समजाने के बाद भी वो विद्यार्थी शान्त नहीं
होता॰
उसी वक्त आश्रम के ऋषि उठ खड़े होते है, और ये
घोषणा कर देते है, के इस असभ्य व्यक्ति को कोय अब नहीं
बुलायेगा ये अछूत है, सारे विद्यार्थी इस व्यक्ति का संपर्क
हर प्रकार से त्याग करे, येही मेरा आदेश है,
ऋषि का यह विधान सुन कर सारे विद्यार्थी स्तब्ध हो जाते है, और जो विद्यार्थी चिल्ला रहा था वो भी गुपचुप हो जाता है, पूरा दिन बीत जाता है, और कोय भी उस गुस्साये
विद्यार्थी से बात नहीं करता,
दूसरे दिन जब उस विध्यार्थी का गुस्सा शांत हो जाता है, तब वही खुद ऋषि के पास आ कर शमा मांग लेता है, लेकिन
जाते वक्त वो ऋषि से पूछता है, के आप ने मुजे ऐसा क्यू कहा
के मे अछूत हु ?
तब ऋषि उस विद्यार्थी को सामजाते है के, जो कोय व्यक्ति क्रोध मे अंध हो कर अपनी वाणी और वर्तन का भान गुमा दे,
और समजाने पर भी ना समजे, उस व्यक्ति को
वर्तन से अछूत मान कर कुछ समय तक यानि के उसका गुस्सा शांत होने और खुद की
गलती समज आने तक अकेला छोड़ देना ही उचित है, इस ही लिए मैंने
तुम्हें अछूत कह कर बुलाया था,
सार-
क्रोध मे अंध व्यक्ति को अच्छे बुरे का भान नहीं होता, इसलिए समजाने का प्रयत्न करने पर भी जो शांत ना हो, उसे
कुछ समय अकेला छोड़ देना ही उत्तम। - समाप्त
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